कितना कुछ बाकी है - हिन्दी कविता संग्रह
कुमारी वंदना
आज जब जन-मन स्वार्थ, अहंकार और ईष्या से भरे परिवेश में दहक रहा है ऐसे में वंदना जी की कवितायें मन को शीतलता प्रदान करने वाली रस की फुहार हैं या मंद-मंद हवा का झोंका हैं, जो कि पाठक के मन की चेतना को हल्के से सहला जाती हैं और सोये हुये भावों को जगा जाती हैं। ये कवितायें बिना किसी बनावटीपन या दिखावे के सीधी दिल की कलम से लिखी गयी सहज अभिव्यक्ति हैं। वंदना जी की कविताओं में भक्ति,प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम, समर्पण, करुणा, नारी मन की स्वाभाविक वेदना, बचपन की कोमल स्मृतियां सहज ही व्यक्त हैं।
कविताओं में कहीं भी क्लिष्ट शब्दों, अनुपयुक्त जटिल बिम्ब या प्रतीकों का समावेश नहीं किया गया है बल्कि बहुत ही सरल भाषा में वंदना जी ने मनोभावों को प्रकट किया है जोकि सामान्य पाठक भी आसानी से समझ सकता है महसूस कर सकता है।
वंदना जी ने समाज की विसंगतियों को, समाज में हो रहे बदलाव में बदलते रिश्तों के मूल्यों को बड़ी आसानी से उकेरा है जो की हृदय में धक्क सी उत्पन्न करती है। एक कविता में ये कहती हैं--जाने क्यूँ/बदल जाती है सोच/आहार-व्यवहार/और धीमी हो जाती/आवाज/रहने लगती है/झुकी-झुकी सी नजरें/उम्र के/ढलान पर/आते-आते/पिता की।
कल्पना के डोरे बाँधकर कितनी सुंदरता से वंदना जी ने सच्चे प्रेम-समर्पण के मोतियों को टाँका है और स्वयं को सूरजमुखी व प्रियतम को सूर्य मानते हुए कहा है- मैं, सूरजमुखी/तुम्हारी दिशा में/घूमना/और/तुम्हें ही/देखते रहना/मेरी नियति है/हाँ! तुम मेरे/सूरज हो।
कुछ कविताओं में प्रियतम से वियोग और प्रियतम के लौट आने की प्रतीक्षा का वर्णन है तो कुछ कविताएँ बाल मन की अनूठी कल्पनाओं को बयां करतीं हैं। नारी मन की वेदना और नारी के सामर्थ्य व समाज को बनाने में नारी के योगदान पर भी वंदना जी ने खूब कलम चलायी है। वे कुरीतियों के पिंजरे को तोड़कर नारी मन के भीतर की चिड़िया को उन्मुक्त गगन देना चाहतीं हैं। नारी के अधिकार के लिये वंदना जी ने नारी के मन में प्रतिरोध का बिगुल फूँकने का भी प्रयत्न किया है। इन रचनाओं को देखते हुए यह निश्चित रूप कहा जा सकता है कि यह पुस्तक पाठकों के हृदय पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रहेगी, वंदना जी को मेरी अनन्य शुभकामनायें।
-गरिमा सक्सेना