भले हूँ बेख़बर लेकिन
हिंदी ग़ज़ल संग्रह
रामनाथ यादव बेख़बर
ग़ज़ल का जूनून लगातार पाठकों के दिलों पर छाते हुए देखकर सुख का गहरा अनुभव होता है लेकिन यह अनुभव और गहराई तक सुख देता है, जब कोई नया ग़ज़लकार लगातार अपनी ग़ज़लों को सँवार, ख़ुद को तराशता है। रामनाथ 'बेख़बर' में यह तराश मैं क़रीब 3 साल से निरन्तर देख रहा हूँ। इस समय अंतराल में इनके लेखन में आयी सकारात्मक तब्दीलियों का मैं प्रत्यक्ष गवाह रहा हूँ।
रामनाथ 'बेख़बर' बहुत ख़ामोशी से ईमानदारी और जूनून के साथ ग़ज़ल विधा को साधने में प्रयासरत हैं और इनका यह छोटा-सा सफ़र आश्वस्त करता है। ग़ज़ल के विधान का बा-ख़ूबी निबाह करते हुए ये ख़ूबसूरती से अपनी कहन साध रहे हैं। सबसे ज़्यादा ख़ुशी इनके भाषाई प्रयोग को लेकर होती है। जहाँ एक ओर इनकी भाषा इतनी सरल और आम है कि एक भी शब्द का अर्थ तलाशने की ज़रूरत मेहसूस नहीं होती, वहीं अक्सर ये हिन्दी के ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं, जो ग़ज़ल में सहज नहीं माने जाते और वह भी इतनी सहजता के साथ कि कहीं कोई दुराव नहीं। यानी अनजाने में ये वह काम कर रहे हैं, जिसकी हिन्दी ग़ज़ल को बेहद ज़रूरत है- ठेठ हिन्दी के माने जाने वाले शब्दों के साथ ग़ज़लगोई करना'।
पाट चौड़ा कर निगोड़ी अब तलक बेसब्र है
गाँव को पीकर रहेंगी इस नदी की हसरतें
सर्द हवाएँ, बिखरे पत्ते और तुम्हारी याद
यादों के बहुतेरे जत्थे और तुम्हारी याद
अभी बनी ही नहीं नाव अपनी काग़ज़ की
गगन में घिरने लगे फिर से हैं घने बादल
इनकी सोच का फ़लक भी बहुत विस्तृत है। जहाँ एक तरफ़ आदमी और समाज से जुड़े ज़रूरी सरोकार इनकी ग़ज़लों में मौजूद हैं, वहीं ज़िन्दगी के खट्टे-मीठे अनुभव भी इनकी रचनाओं में बहुतायत से मिलते हैं। देशप्रेम और सियासत पर भी ये ख़ूब बात करते हैं तो प्रेम जैसा शाश्वत विषय भी इनके यहाँ अभिव्यक्ति पाता रहता है। कुल-मिलाकर इनकी ग़ज़लों में भावों का एक विशाल पैकेज मिलता है।
अभी गिनती के वर्षों की मेहनत में 'बेख़बर' में एक बेह्तरीन ग़ज़लकार की सम्भावनाएँ दिखना बहुत सुखकर है। इसी लगन के साथ अगर ये ग़ज़ल लेखन में सक्रिय रहे तो यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में हमें अनूठी कहन का एक ज़रूरी ग़ज़लकार हासिल हो जाए।
इनकी ग़ज़लों से मेरी पसन्द के कुछ शेर-
जिस्म को जब भी कोई सूरज जलाने आएगा
दौड़ कर मुझको मेरा साया बचाने आएगा
मेरी अनमोल दौलत है, यही पहचान है मेरी
भला मैं छोड़ कैसे दूँ बताओ सादगी अपनी
हसरतों के जाल में उलझी रही यह ज़िन्दगी
अब सज़ा देने लगी है ज़िन्दगी की हसरतें
माह दिसम्बर के जाते फिर आये बस्ती में
रंग-बिरंगे बारह बच्चे और तुम्हारी याद
चल के जिस राह पे बस वक़्त ही ज़ाया जाए
यार उस राह पे अब और न जाया जाए
- के. पी. अनमोल