मैं पेड़ हो गई हूँ - हिन्दी कविता संग्रह
मंजुला उपाध्याय 'मंजुल'
‘मैं पेड़ हो गई हूँ’ प्रचलित स्त्री-विमर्श से अलग कवयित्री मंजुला उपाध्याय ‘मंजुल’ जी के जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव की अनूठी दास्तान है।स्त्री लेखन एक बेहद जटिल रचना कर्म है। जब एक स्त्री मुख्यधारा के सक्रिय लेखन में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कर रही होती है, तो उसके पीछे बहुत बड़ा संघर्ष होता है, जिसे उसके लेखन से गुजरते हुए सहज ही महसूस किया जा सकता है। मंजुला उपाध्याय ‘मंजुल’ जी हिन्दी कविता की सशक्त हस्ताक्षर हैं। इनकी कविताएँ सिर्फ स्त्रीवादी कविताएँ नहीं हैं, जो सिर्फ पुरुषों को गरियाने में ही अपनी सफलता समझती हैं। इनकी कविताओं में घर-परिवार और समाज हैं, जिसके अपने दुख-दर्द व तकलीफें हैं। ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की’ एक ऐसी कविता है, जिसमें मंजुला जी जब कहती हैं कि ‘एक गृहणी की तपस्या / तुम क्या जानो संपादक बाबू / कांटों भरी होती है उसकी रचनात्मक दुनिया’ तो स्त्री लेखन की दुश्वारियाँ स्वतः हमारे सामने आ जाती हैं। इसी कविता में जब आगे वे कहती हैं कि ‘वह तो हम ही हैं जो बाज नहीं आते / कलम को कड़छुल से मिलाने में’ तो एक स्त्री रचनाकार की लेखकीय जिम्मेदारी और उसका जुझारूपन स्पष्ट दिखता है मंजुला जी एक बेहद सुलझी हुई कवयित्री हैं। अतः उनकी कविता में कहीं से कोई भटकाव नहीं है। वो जो भी कहना चाहती हैं, बिना लाग लपेट के कह जाती हैं, यही उनकी कविता की विशेषता है और स्वभाव भी।
मंजुला उपाध्याय की सबसे बड़ी खासियत उनकी कविता में लोक भाषा का प्रयोग है। ‘मैं पेड़ हो गई हूँ’ स्त्री के संपूर्ण जीवन को व्यक्त करती एक अद्भुत कविता है। दरअसल स्त्री अपने परिवार के लिए पेड़ ही तो होती है।
इस कविता के अलावा मंजुला जी की कविता का वैशिष्ट्य है-
टेलीपैथी, टूटी बेड़ियाँ, आजमाना है खुद को, नई लकीरें, वज्रपात, पराधीनता, अनोखा रिश्ता, आठवाँ वचन जैसी कविताएँ। मंजुला जी की कविताओं में खूबसूरत भाषा, अलहदा कहन और टटके बिम्बों की त्रिवेणी प्रवाहित होती है जो पाठकों को अपने साथ बहा ले जाने में पूर्ण समर्थ है। निश्चय ही यह संग्रह ‘मैं पेड़ हो गयी हूँ’ हिन्दी कविता में अपना बहुमूल्य योगदान देने में समर्थ होगा।
-डॉ भावना